मेरे गाँव मे रिश्तों में काफी झोल है। छोटे छोटे बच्चे मुझे रिश्ते में बाबा, चाचा सब लगते हैं। मने बाप के बारात में बेटा जाय लोकनिया वाली बात है। वही वाली बात है कि, बाप रहल पेट में पूत गेल गाजा। शायद इसलिए ही कलुआ ने गाना गाया था कि,”गांव भर काकी, त केकरा के ताकि”।
आज एक दादा जी(दूर के,बस इतना कि एक ही गांव के हैं, और गांव का हर आदमी हर किसीका कुछ ना कुछ लगता ही है), जिनकी उम्र बमुश्किल तीस साल है, को अस्पताल ले जाना हुआ। दरअसल उनकी पत्नी जिनकी उम्र उन्होंने पच्चीस वर्ष बताई, को गला का आंतरिक परीक्षण करवाना था। उनको आवाज संबंधित कुछ परेशानी थी। जिस डॉक्टर को दिखाए थे, उसके पास उसका परीक्षण यन्त्र उपलब्ध नही था, तो उन्होंने एक स्पीच थेरैपी आस्पताल का एड्रेस एक पर्ची पर लिख दिया।
दादू जवान दो दिनों तक भटके, बेहाला, धर्मतल्ला के चक्कर काट कर बेहाल जब हुए तो मेरे पास आये।
यूँ तो अमूमन मैं कहीं भी बाहरी काम करने से इनकार कर देता हूँ, मुझे बंगाल में घूमने का जरा भी मन नही करता, और इसका एक वजह है यहां के लोगो का एड्रेस बताने का तरीका, और दूसरी वजह है, की मुझे खुद पर भरोसा नहीं है कि मैं कोई काम ठीक से कर पाऊंगा की नहीं। खैर मैं उन्हें भी मना कर ही देता, लेकि जवान दादी की मुस्कान ने मुझे ऐसा करने की इजाजत नहीं दी।
” दु दिन से बौख रहल छियै, अगर टाइम छो त तनी चलतहो रे” दादी ने परेशान भाव से कहा तो मेरा दिल पसीज गया। मैंने हामी भर दी, कि ठीक है।
“कितना बजे निकलना है”, मैंने पूछा।
“दस बजे तक निकलेंगे, खा पी लीजिये तबतक” उन्होंने कहा।
घर से निकले तो एक नया बखेड़ा, रास्ते मे उनकी चप्पल टूट गयी। दादा मन ही मन गरियाये, की ले बेटा लगा फिर दो सौ का चूना। नया चप्पल दिलवाए, ऑटो स्टैंड से हाजरा के लिये ऑटो लिया। हालांकि हम बस से भी जा सकते थे और सीधे गन्तव्य को ही पहुचाती, वो भी केवल आठ रुपये में, तो उसमें ये नही जाएंगे। भीड़ रहती है और बगैरा-बगैरा। ऑटो जिस रास्ते से गुजरती है, उसमें कलकत्ता हॉस्पिटल, बी.एम. बिरला, कोठारी हॉस्पिटल, वुडलैंड हॉस्पिटल, और पूर्वी कमांड सेना अस्पताल भी पड़ता है, साथ ही राष्ट्रीय पुस्तकालय भी है। लेकिन मरीज के मन में अस्पताल का ख्याल वाली बात थी, दादा जी गर्व से बता रहे थे उन अस्पतालों का विवरण, और दादी के मन में हो रही थी जलन की माँ का इलाज कोठारी में करवाया, और मुझे फुटपाथिया डॉक्टर से। जिसके चलते इतना बौखना पड़ रहा है।
मैंने बताया कि, हाजरा उतर कर मेट्रो से रविन्द्र सरोबर स्टेशन तक जाना है। मेरे आश्चर्य का उस वक्त ठिकाना न रह जब दादी ने बताया कि वो आजतक मेट्रो में नही चढ़ी। हालांकि वे पिछले आठ साल से कलकत्ता में रह रहे थे।
“फिर चलिये आज मेट्रो में भी घूम ही लीजिये”,मैने कहा। हमने हाजरा के जतिन दास पार्क मेट्रो।स्टेशन में इंट्री की और अगले पांच मिनट में हम रविन्द्र सरोवर में थे। अब उन्होंने एक्सलरेटर वाली सीढ़ी पर कभी नहीं चढ़ी थी, तो घबरा रही थी, हालांकि उन्होंने अपनी घबराहट का अहसास नहीं होने दिया, पर सीढ़ी पर देरी से पैर रखना और उतरते वक्त, जल्दी पैर उठाना इसका संकेत था।
खैर डायरेक्शन के हिसाब से हम भवानी सिनेमा के अपोजिट, मेट्रो और बाटा के बीच वाली गली में घुसे, थोड़ा आगे जाने पर हमने एक सज्जन से पूछा, “दादा एखाने कानेर कोनो हस्पताल आचे की”।
“हें- हें एक्टू आगे जान” भद्रजन ने जवाब दिया।
मैं बंगालियों के पता बताने के इस तरीके से अनजान नही था। ये बंगाली भद्रजन का पता बताने का अजीब तरीका है, हर कोई यही कहेगा, एक्टू आगे, सोझा जान। अब अगर दुराहा है तो फिर किसीसे पूछिये। सब अजीब सी जल्दबाजी में रहते हैं।
किसी तरह से हम सीधे, आगे, दाएं बाएं, करते हुए अस्पताल पहुंचे। नाम था, “इंडिया स्पीच एंड हियरिंग प्राइवेट लिमिटेड”। रिसेप्सनिस्ट से बात की ओर डॉक्टर रेफरेंस की पर्ची दिखाई तो बोला, “क्या आपने पूर्वानुमति ली थी”।
“नही ऐसा तो कुछ नही लिया था” मैंने कहा।
“तब तो शायद नही हो पाएगा, लीजिये इस नम्बर पर कॉल कीजिये, देखिये वो क्या कहते हैं” उन्होंने एक और पर्ची थामाते हुए कहा।
” मतलब ये टेस्ट यहां पर नही होती है क्या” मैने आश्चर्य से पूछा।
” नहीं ये अस्पताल है, टेस्टिंग लेबोरोट्री यह नही है” रिसेप्शनिस्ट ने कहा।
“तो अब मुझे जांच के लिए यहां जाना पड़ेगा” मैंने पर्ची पर लिखे एड्रेस को पढ़ते हुए पूछा।
“हां, लेकिन पहले कॉल कर लीजिए, की वो क्या कहते हैं” उन्होंने फिर कहा।
मैंने कॉल किया, तो उधर से पूछा गया कि पेसेंट ने खाना खाया है या नहीं, अगर नही खाया है तो आप आ जाइये उनको लेकर, जांच हो जाएगी।
हमने बताया, “एक रोटी खाई है केवल।”
“ठीक है आ जाइये” उधर से जबाब आया।
अब दादा जी उस डॉक्टर को कोस रहे थे, जिसने उन्हें रेफर किया था, कि साला इससे अच्छा किसी बड़े हॉस्पिटल में दिखवा लेते, ठीक रहता।
” ठीक है, वहां तक जाना कैसे है” मैंने रेशेप्शनिस्ट से पूछा।
” आप यहां से निकल कर बाएं मुड़ियेगा, कुछ दूर जाने के बाद कचरा पेटी के बाद वाली गली से दाएं मुड़कर, किसीसे पूछियेगा स्विस पार्क जाना है, फिर वहां पहुंच कर लीजेंड्स के बारे में पूछियेगा वो आपको वहां तक पहुचा देगा, कुल पांच से सात मिनट समय लगेगा हेटे गेले।” उसने पूरा विवरण कह सुनाया।
मैं कहीं भूल ना जाऊ, इसलिए सारा नोट कर लिया था। जब हम बाएं दाएं करते धक्का खाते, स्विस पार्क पहुँचे तो वहाँ कोई पार्क नहीं था, बल्कि वो एक और अस्पताल था, और हद तो तब हो गयी, जब मालूम हुआ कि, लीजेंड्स एक चाय दुकान का नाम था। माँ कसम ऐसा थ्रिल पहली बार महसूस किया था। साला बंगालियों पर से भरोसा उठ गया।
खैर जांच घर पहुँचे, जाँच हुआ तो उसकी कीमत अठ्ठाइस सौ पचास रुपये थी, दादा के पास दो हजार, वो तो भला हो बीबी के बचत का जिसने इज्जत बचा लिया। दादी बाहर आकर ताने दे रही थी, “अगर हम नही लाते तो! बहुत बोलते हैं, की हम हैं ना, तुमको पैसा का क्या काम है”।
जब हम बाहर आये, तो मुझे जगह जानी पहचानी सी लगी,एक भाई से पूछा मेन रोड किस तरफ है, उसने सीधे गली के तरफ इशारा किया, बाहर आया तो देखा अरे यार ये तो मेरे कॉलेज का पिछवाड़ा था। मैं तो यहाँ दो साल से रोज आ रहा हूँ। मुझे जितना गुस्सा उस रिसेप्शनिस्ट पर आया, उससे कहीं ज्यादा हँसी अपनी वेबकूफि पर आया।
खैर मैं पूरा थक गया था, पर मेरी थकान उस समय मिट गई, जब दादी ने कहा,”आय तोंय नै एतहो र त फेर घूम के जाय के पड़तै रे, इ तोहर बोकबा दादा से कुछो नै होतै रे”।
वापस घर आये तो दादा ने तीन ग्लास लस्सी का ऑर्डर दिया, पी कर कुछ रिलेक्स महसूस हुआ।
पहली दफा किसी और का काम ढंग से करने पर बहुत खुशी हो रही थी।