कौन कहता है,
किसी को देख
कोई जलता नही है,
गर नही जलता है, तो
उसमें तेल नहीं है,
किसी को देख के जलना
ये कोई खेल नहीं है,
कुछ तो जलते हुए,
बस जल जाते हैं,
हो जाते हैं धुआँ-धुंआ
राख में बदल जाते हैं
और,
कुछ ऐसे भी हैं,
चाहें जैसे भी हैं,
वो भी जलते हैं
जलते हुए चलते हैं
राख में बदलते हैं, लेकिन
उनके जलने से खाली
नही होती धुंआ-धुंआ
लाते हैं ढेर सारा रौशनी भी
की अँधेरे में भी सुझा जाते हैं
खुद के बुझने से पहले
बहुत कुछ बुझा जाते हैं,
जलो तो ऐसे जलो
की रौशनी हो,
न की हो धुंआ-धुंआ
बनो मशाल की डगर है पतली
घनी अंधेर यहाँ,
हर तरफ कुआँ-कुआँ
….. गौतम अज्ञानी