हवा हूं मैं,
मगर आँधी नही हूँ,,
दुर्व्यवस्था से लड़ने वाला,
मैं कोई गांधी नही हूँ,
हवा ही तो हूँ
सो कोई रोकता नही है
बहता चला जाता हूं
कोई टोकता नहीं है,
दरख्तें राह दे देती हैं,
समंदर थाह दे देती है,
गर मैं होता कोई आँधी,
दंभ भरता अपनी द्रुतगति का,
उड़ा ले जाना चाहता सबकुछ,
मारा अपने मती का,
फिर सीना तान देता दरख़्त,
पहाड़ मेरा रास्ता रोक देता,,
गर मैं होता कोई गांधी,
करता सदैव सत्य की बात,
जो है अँधेरी रात तो,
मैं करता रौशनी की बात,
अंधेरे में रहने वाले लोग
मुझे नापसन्द करते,
मुझे किसी कालकोठरी में बंद करते,,
या फिर आता कोई गोडसे,
और मुझे ठोक देता,
शायद यही तुम्हारी क्रांति होती,