उम्र जब ढलने लगती है,
शुष्क हो जाती हैं नज़रें,
मद्धम होने लगते हैं नज़ारे,
हम अपनी जिविनि नैया,
खीच लाते हैं किनारे,
ढूंढने लगते हैं,
पुनः बिछड़े सहारे,
ढूंढते हैं कोई आस,
की जब कोई ना हो पास,
ढूंढते हैं उन रिश्तों को,
की जिनमे कमी ढूंढा करते थे,
मगर वो नही मिलते,
की जैसे घास में
सुई नही मिलते,
और फिर जीना दूभर लगता है,
ऐसे ही तो उम्र ढलता है,
फिर एक दिन ऐसा आती हैं
लौट कर वो नहीं आते,
मौत आती है।।